Friday, February 5, 2016

कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या...


' परवीन शकीर', मशहूर शायरा की पहली दो लाईनों को लेकर, मेरे ख्याल।

( कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या ! )

कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या...

मैं जीऊँ  या मरूँ 

तुमको इससे क्या, 

मेरी इबादत में गर है दम,

रहमत होगी उसकी रज़ा । 

कट जाएँ मेरी सोच के पर , तुमको इससे क्या...

इरादे मेरे फौलादी हैं, 

मंज़िल रोक सकोगे क्या।

चाहे जितनी हंसी उड़ाओ, 

नाउम्मीदियों पे जश्न मनाओ

अमावस्या के बाद का चाँद, और 

खिली चांदनी में नहाई मैं ,

रोक सकोगे क्या ।


कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या...

सांसे,  परवरदिगार ने बक्शी, 

यह कुछ कम है क्या।

चंद लम्हे सुस्ता तो लूँ , 

तेरी जान पे क्यूँ बनी भला।

नया सवेरा संग अपने, 

नई रौशनी लायगा,

ए बन्दे यूँ इतराना क्या ।


कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या...

मेरी उड़ान में वो दम नहीं, 

तुम हंस लो ज़रा,

पल पल बदलती है ज़िन्दगी, 

ठहरा कुछ भी नही, 

नई सोच भी आएगी, 

विजयघोष की तरह,

इसी इंतज़ार में बैठे हैं,

 तुम ठहरो तो ज़रा।


कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या...

गिरों को और गिराना, 

तुम्हारी फितरत में है क्या, 

कुछ लोग और ही फितरत के होते हैं, थपकी देकर

आगे बढ़ना देते हैं सिखा ।

Kiren Babal

5.2.2016

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