राख के ढेर से उठी चिंगारियां, भी
शांती के पैगाम दे जाते हैं।
धुंध का गीलापन भी,
उम्मीद का स्पंदन दे जाता है।
सर्द आहों में भी, अमन-ओ-चैन
की ख्वाहिशें सांस लेती है।
ना - उम्मीदी, कितनी गहरी क्यूँ न हो
तुम्हारे होठों की हंसी, पैगाम-ए-मुहब्बत दे जाते हैं।
Kiren Babal
24.12.2015
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