Wednesday, February 3, 2016

चिंगारियां

राख के ढेर से उठी चिंगारियां, भी 

                                           शांती के पैगाम दे जाते हैं।

धुंध का गीलापन भी,

उम्मीद का स्पंदन दे जाता है।

सर्द आहों में भी, अमन-ओ-चैन

की ख्वाहिशें सांस लेती है।

ना - उम्मीदी, कितनी गहरी क्यूँ न हो

तुम्हारे होठों की हंसी, पैगाम-ए-मुहब्बत दे जाते हैं।

Kiren Babal

24.12.2015

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