Thursday, July 12, 2012

हसरत




मुक्त हंसी हँसता हुआ कारवाँ यूँ
नज़रों के सामने से गुजर गया
हसरत ही रह गई कि हम भी शरीक होते|
तन्हा खड़े एकट्क देखते ही रह गए
पता ही नहीं चला कब जिंदगी गुज़र गई ||

तन्हाई



मेरी तन्हाई से तुम्हें सुकून मिले
तो सर आखों पर|
हमें तो यूँ भी आद्त है तन्हा रहने की|
पलभर की खुशी जब भी मिली तुमसे
महसूस यही होता रहा कि
बहुत महंगी पड़ेगी मुझे|
कतरा कतरा हंसी की कीमत
यूँ आँसुओं से चुकेगी
ये मालूम न था|

कशमकश


ज़जबात कहते हैं कि दिल खोल के रो
और फर्ज़ कहते है, आँखें नम भी ना करो|
दिल कहता है, पंख लगा के उड़ जाओ
और हालात कहते हैं, खामोश रहो और सहो
हरेक लम्हा, अपने आप में उदास गीत है
कशमकश ऐसी है कि नहीं मालूम
क्या सही है और क्या ग़लत |

मौत के साऐ


तेरा वो बचपन
हँसता खेलता बचपन
धीरे धीरे बढ़ता बचपन
जवानी में बदलता
तेरा वो बचपन|
देखा तो मैंने ---------         
तेरा वो सारा बचपन|
--नहीं देखा तो सिर्फ़
मौत के साऐ में घिरता
तुझे और तेरा वजूद
--नहीं देखी तो तेरी
वो अनकही ,अनसुनी फरियादें
मौत से गिड़गिड़ाती
तेरी सिसकियाँ |


ख्वाबों में तो तुम आते हो
हमेशा से अपनी शरारत लिए हुए
मगर जिंदगी से रूख्सत हुए
हमें रुला-रूला के||

एहसास



ये रात की स्याही
निगल जायगी मुझे|
अब तो आ जाओ के
डर लगता है मुझे|

तेरी परेशानियों का एहसास है मुझे,
मैं मानती हूँ |
मगर मुझे इस कदर परेशान करो
क्या इख्तयार है तुम्हें|

दर्द का आलम


ये कौन सा अभीशाप है मुझपर
ऐ खुदा कुछ तो बता
हर खुशी की कीमत चुकाई है
मैने रोने के बाद ||

तुमने फूल और
उनकी बहार देखी है,
हमने तो कांटो को भी
सहला कर देखा है ||

फिर वही तन्हाई वही खामोशी,
वही दर्द का आलम |
दूर खड़ी चिढ़ाती है मुझे
ऐ दिल बता मैं क्या करुँ ||

बात कहाँ की ,कहाँ तक पहुँच गई,
तुम तो कह कर चले गए
और हम सिसकते ही रह गए ||


उदास हवाएँ


फिज़ा की हवाएँ उदास क्यों हैं
होठों पे गीत सिसकते क्यों हैं|
पलकें बोझिल हो क्‍यूँ छलक जाती हैं
और दिल की दुनिया बेवजह लहूलुहान क्यों होती है|
ऐसा क्‍यूँ है, कि दीवारों के संग मिल बैठ घंटों बातें होती है
और दीदारे जिंदगी को सर्द खमोशी से सुनते है|
क्‍यूँ जज़्बात की कशिश तुझे मह्सूस नहीं होती, ए जिंदगी
शमा तो यूँ भी रफ़्ता-रफ़्ता जल ही जायगी,
फिर जलाने में क्‍यूँ मज़ा आता है
तुझे ए जिंदगी |


Wednesday, July 4, 2012

मेरे अपने


मैं  हूँ कौन
पूछा मुझसे मेरे अपनों ने|

बेआवाज रहूँ मैं सदा
कहा मुझसे मेरे अपनों ने|

ज़ाहिर करूँ ना कोई अरमां
कहा मुझसे मेरे अपनों ने |

और डर ने कहा ----
मैं, रहूँ सदा तेरे मन में |


सवाल


दिल की रही दिल में
तुम्हें सुनाएँ भी तो कैसे|


दामन आंसुओ से भीगा है
तुम्हें दिखाएँ भी तो कैसे|

अश्क पलकों पे अटके हैं
वो छलकें भी तो कैसे |

फूल तो मुरझाए पड़े हैं
बहार आए भी तो कैसे |

Tuesday, July 3, 2012

बेरूख़ी


ये दावा है लोगों का कि उन्हें
मौह्ब्बत नहीं है हमसे |
हम किस ज़ुबान से दावा करें
कि ये कोई हक़ीकत नहीं |
तेरी बेरूख़ी हर रोज़ मेरे
रेत के घरौंदे को फना करती है|
और बेजुबान थिरकते ये होंठ
मेरा गला दबाय जाते हैं |
रौशन है गर ये शमा
तो सिर्फ़ फर्ज़ की खातिर |
वरना मौत कब की
हमें गाकर लोरियाँ सुनाया करती |

खामोशी


खामोशी हद से ज़्यादा, कुछ इस कदर बढ़ गयी ,
के आँख बरबस ही  छलक के बोल पड़ी  |
वक्त के लम्हों को जीना तो है ही ,
फिर हंसी होठों पे थिरके या दर्द सीने में छुपा सिसके,
इसकी फ़िक्र क्यों?
शमा ने जलकर राख तो होना ही है ,
फिज़ूल की शिकायत फिर दीपक से कैसी ||