सोचा ज़रा दुनिया देखूँ,
किस रंग रंगी है?
थोड़ा वाकिफ हो जाऊँ,
यही सोच, बहुत दिनों के बाद,
अखबार खोल, पढ़ने बैठ गई मैं।
अखबार क्या पढ़ा,
जिस्म और आत्मा ,
दोनों लहुलुहान हए।
किसी की ममता रोई,
बहन का धागा रोया,
बेटियाँ जो घर की आन होती है
वही रक्त रंजित,
अपनों से ही प्रताड़ित,
तार तार हुई।
दुनिया की सैर क्या, मैंने
हैवानियत का ही खुला तांडव पढ़ा।
जब रक्षक ही बने भक्षक,
तो किस दर जाए कोई।
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा गिरजा,
सबमें अस्मत लुटते दिखी।
ऐ खुदा,
ये धरती ,
तेरी बनाई हुई,
तेरी ही कायनात है।
सुनते हैं स्वर्ग नरक
सब यहीं है,
फिर दोज़ख ही मुझे
क्यों दिखाई पड़ी।
कहते हैं तेरे पास वो लाठी है
जब बरसती है, तो बेआवाज़ होती है।
तो क्यों नहीं चलाते, अपनी जादू की छड़ी ?
अमन -ओ-चैन सा तेरा यह जहाँ बन जाए।
फिर ना किसी माँ की कोख लजाए,
और न उसकी ममता रोए,
बहन और बेटी सर उठा के जिएँ।
तेरे ही तो हम सब बन्दे हैं,
ऐ खुदा चला दे, वो जादू की छड़ी,
ऊँच नीच की दीवार पट जाए,
भूख किसी तन को ना खाए
वहशत का फिर नंगा नाच ना हो
सर उठा के सब गर्व से कहें
कि ,खुदा के ही,
नेक बंदे हैं हम।
कि,खुदा के ही
नेक बंदे हैं हम।
Kiren Babal
14 .7.2015