फिज़ा की हवाएँ उदास
क्यों हैं
होठों पे गीत सिसकते
क्यों हैं|
पलकें बोझिल हो क्यूँ
छलक जाती हैं
और दिल की दुनिया बेवजह
लहूलुहान क्यों होती है|
ऐसा क्यूँ है, कि दीवारों
के संग मिल बैठ घंटों बातें होती है
और दीदारे जिंदगी को
सर्द खमोशी से सुनते है|
क्यूँ जज़्बात की
कशिश तुझे मह्सूस नहीं होती, ए जिंदगी
शमा तो यूँ भी रफ़्ता-रफ़्ता
जल ही जायगी,
फिर जलाने में क्यूँ
मज़ा आता है