एक व्यंग्य कविताओं की बौछार पर,जब चाहते हुए भी सब पढ़ नहीं पाते।
जुगाली
भई , क्या रफ्तार है
चहुँ ओर कविताओं की बौछार है
ज़रा थम जाओ,
कोई होड़ लगी है क्या?
जो ऐसी भागम भाग है!
चाहने वालों का बुरा हाल है
बस पढ़ते जाओ, बढ़ते जाओ
हम भी कैसे श्रोता हैं, सभी लड्डुओं को
खाते खाते, अपच के शिकार हैं ।
भई जरा जुगाली तो करने दो
काव्य रस का पान तो करने दो
जब तक कविता मन में ना बसे
उसे जीवन वरदान कैसे मिले ?
कवि का लेखन, श्रोताओं का मंथन,
दोनों का तालमेल, प्रेमी प्रेमिका समान है।
दोनो साथ साथ हैं तो अमरप्रेम है....
रफतार में बेमेल ,कविताओं की अमावस है,
जैसे चार दिन की चाँदनी और फिर अँधेरी रात हो ।
कविता को जीना है,तो
श्रोताओं के मन में घर बनाना है
लिख कर , किसी कोनें में सरक जाए,
तो एक बंद पुलिंदे समान हैं।
मगर श्रोता तो फिर श्रोता हैं
मुड़ के फिर वहीं आते हैं
डूबते हैं , उभरते हैं, पिछड़ते हैं
फिर कविता के संग हो लेते हैं ।
Kiren Babal
30.9.2015
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